एक कहावत है कि "आप कितना भी ज़ुल्म कर लो एक न एक दिन उस ज़ुल्म का हिसाब देना होगा।"
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| बिरसा मुंडा |
वैसे एक सच्चाई की कहानी बिरसा मुंडा कि उन्होंने अंग्रेजों ने राज करने के लिए आदिवासियों को बहुत ज़ुल्म किये और उस ज़ुल्म का शिकार भी हुए थे जिन्होंने बहुत करीबी से देखता था। आदिवासियों को विश्वास था कि किसी न किसी को उस ज़ुल्म का हिसाब देने के लिए अंग्रेजों को मजबुर करना होगा।
फिर क्या था............उस ज़ुल्म का हिसाब लेने के लिए बिरसा मुंडा का जन्म उलीहातु गांव में मुंडा परिवार में हुआ था।उनका जन्म 15 नवम्बर 1875ईं को हुआ। उस समय अंग्रेजों ने 1874ईं तक आदिवासियों के जमीने छीने गए, जहां आदिवासी का अधिकार था वहां अधिकार भी छीने गए, अर्थात् जहां आदिवासी को मालिक होना चाहिए वहां नौकर बना दिया गया।
अंग्रेजों ने नयी नयी कानुन बनाकर जैसे जमींदार या बंदोबस्त व्यवस्था को लागू किया, विभाजन करो और राज करो,इस तरह के कानुनों बनने के कारण आदिवासी को मालिक से नौकर बना दिया गया। लेकिन दुःख की बात यह है कि आज भी आदिवासियों को नौकर बना के रखा गया है। भारत आजाद होने के पश्चात भी आदिवासियों का स्थिति वैसी का वैसी है।उस समय जमीनें छीने के लिए नयी नयी कानुन बानते है लेकिन अब आदिवासियों का जमीन न छीना जाए इसलिए सीएनटी एसपीटी एक्ट बनने के बावजूद भी आदिवासियों का छीना जा रहा है,,,,,।
खेर ये तो आज की स्थिति है लेकिन उस समय बाहरी लोगों की आदिवासी क्षेत्रों में आगमन होने से विद्रोह का कारण बन गया और विद्रोह का उलगुलान बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुआ।
बिरसा मुंडा को खुद भी बचपन के दिनों में अंग्रेजों की ज़ुल्म सहने पड़ते थे।और ज़ुल्म सहाते सहाते उस ज़ुल्म को दमान करने के औपनिवेशिक शासन के खिलाफ आदिवासी आंदोलन को राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम से जोडा गया और इसने पुरे देश में भारतीयों को प्रेरित किया।इस तरह उलगुलान को शूरू करने से लोगों ने भागवन के पैगम्बर घोषित किया।
दि लालनटाॅप के द्वारा प्रकाशित के अनुसार आदिवासियों को अंग्रेजों के ज़ुल्म के साथ साथ धर्म परिवर्तन का भी शिकार हो रहे थे। शूरुआत के दौरान बिरसा ने भी ईसाई धर्म को अपना लिये थे। बाद में ईसाई धर्म को त्याग कर अपनी पुरखोति धर्म पर वापस आ गया।
धर्म और दर्शन औपनिवेशिकवाद का संस्कृति काम कैसे करता है इस बारे में कैन्या ने लिखा था जब ब्रिटिश भारत आए तो उनके हाथों में बाईबल थी और हमारे पास जमीन, उन्होंने कहा चलो प्रार्थना करते हैं जब हमने आंखें खोली तो देखा हमारे पास बाईबल थी और उनके पास हमारा जमीन।।
बिरसा मुंडा ने जब उलगुलान कि शुरुआत के दौरान नारे लगाते हुए कहा कि "अबुआ दिसुम अबुआ राज"अर्थात् आबुआ दिसुम यानि हमारा स्वराज कि घोषणा कर दी गई ।इस उलगुलान में 1899ईं तक के आसपास लगभग 7000 लोग इस उलगुलान में शामिल हुए। इस बढ़ते विद्रोह को दबाने के लिए 150 सैनिक डुम्बरी बुरु में शरण लिए क्रांतिकारी को पकड़ने के लिए पहुंची । जैसे ही सैनिक आते देख क्रांतिकारी ने सैनिक के ऊपर हमला कर दिया फिर सैनिकों ने भी हमाला करना शुरू कर दिया और सैनिकों द्वारा चलाई गयी बंदुकें सैकड़ों क्रांतिकारी की जान चली गई।उस वक्त वैसे ही घटना घटी जैसे जलीयावाला बाग एवं खरसावां गोलीकांड में हुआ था। खेर अगर खरसावां गोली काण्ड के बारे में बात करें तो उस कांड में अनगिनत लोगों का जान चली गई लेकिन न जाने क्यों इतिहास में जगह नहीं मिल पाया। ये सवाल हमें बार पुछने का मन करता आखिर क्यो इतने बड़े खरसावां गोलीकांड को इतिहास में जगह दिया गया?
अंततः उस समय आदिवासियों को दबाते आ रहे हैं और आज भी दबाया जा रहा है।उस छड़प में बिरसा मुंडा बच निकला और सिंहभूम के पहाड़ी क्षेत्रों में शरण लिए।
और फिर 3फरवरी को चक्रधरपुर के आसपास बिरसा मुंडा को गिरफ्तार करवाया गया,वह अपने ही लोगों के द्वारा 500रूपय के लालच में, और फिर 9 जून को राहस्य में तरीके से बिरसा मुंडा शहीद हो गए।
अर्थात, "उलगुलान कि आग में जंगल नहीं जलता,आदमी का राक्त और हृदय भी जलता है।"
इस उलगुलान और बलिदान कि गथा आज आदिवासीयों के लोकगाथा, लोकगीतों में पाए जाते हैं।
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| वीर शहीद पोटो हो पुस्तकालय रिडिगंदा में बिरसा मुंडा का शहादत दिवस मनाते हुए, |
उस उलगुलान आज भी जीवित है एवं उनके बलिदान ने भी बिरसा भागवान का दर्जा लोगों ने दिए।।



4 टिप्पणियाँ
बहुत सुंदर लेख
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंबहुत अच्छा
जवाब देंहटाएंLekh bahut achchhe hai.
जवाब देंहटाएंJay Johar, jay aadiwasi
Johar