आदिवासियों के पंरपरा आदिवासियों का एक अलग पहचान बनातीं है। उस पहचान में कई सारे ऐसे चीजें हैं जो एक सामान्य जीवन जीने में मददगार साबित होता है।
अगर आदिवासियों में व्यवसाय के बारे में बात किया जाए तो उनमें ये आर्थिक के साथ साथ शैक्षणिक में भी पिछड़े हैं। शायद ऐसे भी हो सकता है कि उन्हें अच्छा प्लेटफॉर्म न मिला हो। आधिकांश मामले ये देखा जाता है कि आदिवासी शैक्षणिक मामलों में विकसित में करें तो आगे बढ़ने के अच्छी निर्देश मिल पाता है, जिससे सरकारी नौकरी नहीं मिल पाती हैं।
जिसमें वे बेरोज़गारी हो जाते उसके असर समाज में भी पड़ता है।लेकिन वे इन बातों से अनजान रहते हैं कि व्यवसाय करके अच्छी जीवन व्यापन कर सकते हैं।
एक व्यवसाई करने क्या क्या आवश्यकता होती है?
क्या आदिवासियों को व्यवसाय करना असम्भव है?
क्यों व्यवसाय के मामले में भी पिछड़े हैं उसके पास भाले ही पुजी न हो लेकिन उनके पास संपत्ति है?
इन सारे सवालों का जबाव आप खुद जानते हैं। व्यवसाय करने के लिए आदिवासियों के पास उतना पुजीं नहीं जिसके चलते व्यवसाय करने असमर्थ हैं, लेकिन ये बातें से अनजान हैं कि अगर आपके पास हुनर है तो आप व्यवसाय प्रतियोगिता में हरा सकते हैं। कैसे?
अकसर कहा जाता है कि आदिवासी के पास पैसे नहीं लेकिन संपत्ति है और ये कहा जाता है कि आदिवासियों के लिए पैसे उतना महत्व जितना संपत्ति!!
उस संपत्ति (जन जंगल जमीन)के बारे बात किया जाये तो उस संपत्ति पीढ़ी दर पीढ़ी रक्षा करते आ रहे हैं और संपत्ति को बढा रहे हैं, लेकिन उस रक्षा करने के लिए एवं जीवन व्यापन करने के लिए जो पुरखों द्वारा हुनर सिखाते हैं उसी हुनर को व्यवसाय उपयोग कर सकते हैं।जिसे यह कहा सकते हैं "परपंरागत तरीके जो हुनर, शिक्षा, व्यवसाय करने कि तरीके"सिखते है।
जैसे कि पत्ते का प्लेट बनाना, झाड़ू बनाना, खेती करना, पशुपालन करना, बांस से बनाई जाने वाली समाग्री, लकड़ी से बनाई जाने वाली समाग्री, इत्यादि
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| पत्ते का प्लेट बनाते हुए आदिवासी महिला |
इस सारे बनाने का हुनर पुरखों द्वारा परंपरागत तरीके सिखते आ रहे हैं। अगर इसी हुनर को व्यवसाय में उपयोग किया जाए तो शायद कहां से कहां पहुंच जाएंगे।
हमलोग समाजिक कार्यों में पत्ते का प्लेट तो बनातें लेकिन उसे व्यवसाय के क्षेत्रों में नही करते हैं, हमलोग झाड़ू बनाने जानते पर व्यावसाय के रूप में नहीं करते हैं।
एक बात है जो पुरखों द्वारा परंपरागत तरीके सिखते जाती हैं न किसी स्कूल में सिखाई जाती हैं न किसी इंस्टीट्यूट में।
ऐसा करने से आदिवासियों के समाज के साथ साथ उनके संस्कृति परंपराओं भी जीवित रहेगा।।
और इस तरह परंपरागत हुनर से रोजगार के रूप में ला सकते हैं जिससे कम बजट में बड़ी मुनाफा कमाया जा सकता है।
लेकिन न जाने कौन सी वजह है इतने हुनर होने के बावजूद भी पलायन हो जाते है या तो बेरोज़गारी हो जाते हैं जिससे समाज में काफी गहरा प्रभाव पड़ता है। जहां छोटे छोटे उद्योग बना सकते वहां मजदूर बनाने में विवश हो जाते हैं।
"पुरखों ने ग़ुलाम देश होने के बावजूद भी गुलामी न कि लेकिन आज आजाद होने के बावजूद भी गुलामी की जिदगी जी रहे हैं।
प्रभात खबर के 28 फरवरी को प्रकशित लेख ने "बाजार में कहां खड़ा है आदिवासी" एवं 8 अप्रैल को गणेश मांझी द्वारा लेख "व्यापार और आदिवासी"में बहुत सारे तत्व को लिखे हैं हमें समझने के जरूरत है। उस लेख से प्ररेणा लेने कि जरूरत है कि किस तरह हमारे युवा व्यवसाई के क्षेत्रों में अपना योगदान दे।
आदिवासियों को अपने परंपरागत व्यवस्था से व्यवसाय करने की जरूरत है।
"व्यापार और आदिवासी " लेख में यह निष्कर्ष निकलाता है कि आदिवासी नेटवर्क मार्केटिंग कंपनी में ज्यादा ध्यान आकर्षित हो जाते हैं जिससे बाद में कभी कभी आपने आप को फ्रोड महसूस होता है।इस तरह के कंपनी में किसी ओर का लाइवस्टाईल बात के आपको संयंत्र के साथ घुसा देते उसके बाद "घर का न घट क"!!!
और बाजार की बात करें तो आदिवासी कि जिंदगी में बाजार अहम भूमिका निभाता है क्योंकि आदिवासी के लिए समाजिक, राजनीतिक, एवं आर्थिक का संपन्न बाजार में होता है, लेकिन अपने ही बाजार में खड़े का खड़े रहा जातें हैं। ऐसा लगता है कि अपने घर रहने के बावजूद भी पराया घर जैसा लगता है।।

4 टिप्पणियाँ
बहुत ही सुन्दर लेख
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंNice
जवाब देंहटाएंHam aadiwasi kisi scientist ya (vaigyanik) se Kam nahin hai.
जवाब देंहटाएंJohar