पत्थलगडी़, संसनदिरी, महापाषाणकालीन संस्कृति आज भी आदिवासी में मौजूद हैं
संसनदिरी

पत्थलगडी़ या हड़गड़ी या संसनदिरी उन पत्थर स्मारकों को
कहा जाता है जहां जिसकी शुरुआत आदिम समाज ने हजारों साल पहले की थी। यह पत्थलगडी़ आदिवासियों में अभी भी प्रचलित है। आदिवासियों के परंपरा वर्षों से चली आ रही जो अभी भी तक जीवित हैं। इस परंपरा को अनेकों रुप में प्रस्तुत किया जाता है जैसे कि मृतकों कि याद में, कबीलों के अधिकार क्षेत्रों के सीमांकन को दर्शाने, सामुहिक मान्यताओं को सार्वजनिक करने, इत्यादि उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्रागैतिहासिक मानव समाज ने पत्थर स्मारकों की रचना की।
इस आदिवासी पंरापरा को पुरातात्विक वैज्ञानिक शब्दावली में 'महापाषाण' ,'मेगालिथ','संसनदिरी','बुरुदिरी, कहा जाता है। झारखंड के मुंडा,हो, संथाल, उरांव आदि आदिवासी क्षेत्रों में देखने को मिलता है पुरातात्त्विक विद्वानों और इतिहासकारों के अनुसार पत्थलगडी़ यानी पत्थर स्मारकों की परंपरा प्रागैतिहासिक समय में आरंभ हुईं । इस परंपरा किस काल में शुरूआत हुई वह वैज्ञानिकों में आज भी मतभेद हैं, परंतु सभी इस बात से सहमत है कि यह महापाषाणकालीन परंपरा है। दुनिया में जहां जहां भी प्राचीन पत्थलगडी़ है उसे विश्व धरोहर घोषित कर संरक्षित किया गया है।
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| अपना क्षेत्रों का अधिकार लेखन |
झारखंड के मुंडा एवं हो समाज में संसनदिरी,बुरूदिरी कहा जाता है। ये पत्थर अधिकांश ग्रेनाइट नीस/Schist के होते हैं। यहां पर सभी मृतक स्मारकों पत्थर (Dolmen) हैं। विश्व में ज्यादातर Dolmen 4000-3000 ईसा पूर्व (Neolithic) हैं।
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| बुरूदिरी |
वहां आज भी मुंडा एवं हो समाज के लोग मृतकों को दफनाते है,यह संसनदिरी कम से कम तीन हजार सालों से जुड़ा हुआ आदिवासी समाज का जीवित परंपरा का अंग है।आज हरेक गांव में एक संसन स्थान जरूर देखने को मिलता है। एक संसन स्थान में एक गोत्रों के लोगों को ही दफानते है। किसी किसी गोत्रों में घर के आंगन में ही संसन स्थान पाये जाते हैं
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3 टिप्पणियाँ
जोहार दिशाऊली
जवाब देंहटाएंजानकारी के लिए धन्यवाद
जवाब देंहटाएंधन्यवाद,,,,,
हटाएंइस तरह का राय जरूर साझा किजिए गा
Johar